आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास और कर्म फ़ल त्याग? देनेवाला तो कोई और ही है......!
आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास और कर्म फ़ल त्याग? देनेवाला तो कोई और ही है...!
"आध्यात्मिक साधना की सिद्धि तभी संभव है जब स्वयं में श्रद्धा और विश्वास हो। स्वयं में श्रद्धा और विश्वास होने पर ही हमारा संकल्प दृढ़ होता है। जितनी दृढ़ हमारी आत्मश्रद्धा, आत्मविश्वास और संकल्प होगा, उतनी ही शीघ्र सफलता और सिद्धि हमारे चरणों में होंगी। यह बात मैं अपने पूरे जीवन के अनुभव से कह रहा हूँ।"
इस बात का अनुमोदन वेदान्त दर्शन भी करता है। सब तरह के बलों में "आत्मबल" सर्वश्रेष्ठ है। आत्मबल की कुंजी है -- आत्मश्रद्धा। अचल आत्मश्रद्धा से ही आत्मविश्वास जागृत होता है। आत्मविश्वास से ही हमारा शिव-संकल्प दृढ़ होता है।
यह अचल आत्मश्रद्धा ही आत्मबल के रूप में व्यक्त होती है।
आत्मश्रद्धा का अभाव ही -- असफलता, निराशा, निर्धनता, रोग व दुःख आदि के रूप में व्यक्त होता है।
आत्मश्रद्धा की प्रचुरता -- सफलता, समृद्धि, सुख-शांति आदि के रूप में व्यक्त होती है।
आत्मश्रद्धा न होने से हमें हमारे सामर्थ्य पर संदेह होता है, जिसका परिणाम असफलता, निष्क्रियतता, उत्साह-हीनता, और निराशा है।
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हमारे शास्त्र जिसे -- सर्वशक्तिमान, सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सच्चिदानंद, शाश्वत, अनंत, अखंड, अव्यय, अविनाशी, निरंजन, निराकार, निर्लेप और परम-प्रेमास्पद कहते हैं, वह अन्य कोई नहीं, हम स्वयं हैं। हम जो चाहें वह बन सकते हैं। यह रहस्यों का रहस्य है कि जिसके अंतःकरण में अचल दृढ़ आत्मश्रद्धा रूपी चुम्बकत्व है, सारी सिद्धियाँ उसी का वरण करती हैं।
हमारे परम आदर्श भगवान श्रीराम हैं, उनके पास कोई साधन नहीं था, लेकिन सारी सफलताएँ व सिद्धियाँ उनके पीछे-पीछे चलती थीं।
हमें राम-तत्व को स्वयं के जीवन में अवतरित करना होगा।
बालक ध्रुव के पास कौन से साधन थे? लेकिन उन्होने भगवान विष्णु के परम-पद को प्राप्त किया।
बालक आचार्य शंकर के पास कौन से साधन थे? लेकिन उन्होने सनातन धर्म की पुनर्प्रतिष्ठा की।
आत्मा में अचल श्रद्धा होनी चाहिए। क्षण मात्र के लिए भी प्रकट हुई अश्रद्धा, विजय को पराजय में बदल सकती है।
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गीता में बताए हुए अपने स्वधर्म व कर्मयोग को न छोड़ें। अर्जुन की तरह भगवान श्रीकृष्ण को अपने जीवन का कर्ता बनायें, और सदा याद रखें --
"यत्र योगेश्वरः कृष्णो यत्र पार्थो धनुर्धरः।
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम॥" (श्रीमद्भगवद्गीता, १८:७८)
~जहाँ योगेश्वर श्रीकृष्ण हैं, और जहाँ धनुर्धारी अर्जुन है वहीं पर श्री, विजय, विभूति और ध्रुव नीति है, ऐसा मेरा मत है॥
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जो कुछ भी जीवन में हमें मिलता है, वह अपनी श्रद्धा और विश्वास से ही मिलता है। बिना श्रद्धा-विश्वास के कुछ भी नहीं मिलता।
भगवान कहते हैं --
"श्रद्धावाँल्लभते ज्ञानं तत्परः संयतेन्द्रियः।
ज्ञानं लब्ध्वा परां शान्तिमचिरेणाधिगच्छति।।॥"
(श्रीमद्भगवद्गीता, ४:३९)
~ श्रद्धावान्, तत्पर और जितेन्द्रिय पुरुष ज्ञान प्राप्त करता है। ज्ञान को प्राप्त करके शीघ्र ही वह परम शान्ति को प्राप्त होता है॥
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श्रद्धावान् के साथ-साथ मनुष्य को "तत्पर" और "संयतेन्द्रिय" (जितेंद्रिय) भी होना पड़ेगा। श्रद्धालुता में छल-कपट नहीं चल सकता।
रामचरितमानस के मंगलाचरण में संत तुलसीदास जी ने श्रद्धा-विश्वास को भवानी-शंकर बताया है, जिनके बिना सिद्धों को भी अपने इष्ट के दर्शन नहीं हो सकते --
"भवानी-शंकरौ वन्दे श्रद्धा-विश्वास रूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्त: स्थमीश्वरम्॥"
अब और कुछ कहने को बचा ही नहीं है। हमारे पास खोने को कुछ भी नहीं है, सब कुछ भगवान का है। पाने के लिए परमात्मा के हृदय का अनंत साम्राज्य है। जिनके हृदय में परमात्मा नहीं है, उन्हें विष (पाइजन ) की तरह त्याग दें, अन्यथा उनके नकारात्मक स्पंदन हमें भटका देंगे। भगवान का साथ पर्याप्त है, और कुछ भी नहीं चाहिए।
"जाके प्रिय न राम-बैदेही।
तजिये ताहि कोटि बैरी सम, जद्यपि परम सनेही॥"
• कर्मफलों का त्याग
भगवान श्रीकृष्ण के श्रीचरणों में स्वयं का समर्पण कर्मफलों का त्याग है। जिसने कर्मफलों का त्याग कर दिया है, उसके लिए कोई "कर्मयोग" नहीं है। उसके लिए सिर्फ "ज्ञान" और "भक्ति" है, क्योंकि वह केवल एक निमित्त मात्र साक्षी है। कोई कर्मफल उस पर लागू नहीं होता, क्योंकि उसके कर्मों के कर्ता और भोक्ता तो भगवान श्रीकृष्ण स्वयं बन जाते हैं।
समस्त कामनाओं के नाश से अमृतत्व की प्राप्ति होती है। जो कूटस्थ अक्षर ब्रह्म की उपासना करने वाले अभेददर्शी हैं, उनके लिये कर्मयोग सम्भव नहीं है।
भगवान कहते हैं --
श्रेयो हि ज्ञानमभ्यासाज्ज्ञानाद्ध्यानं विशिष्यते।
ध्यानात्कर्मफलत्यागस्त्यागाच्छान्तिरनन्तरम॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, १२:१२)
~ अभ्यास से ज्ञान श्रेष्ठ है; ज्ञान से श्रेष्ठ ध्यान है और ध्यान से भी श्रेष्ठ कर्मफल त्याग है; त्याग से तत्काल ही शान्ति मिलती है॥
ऐसे भक्तों का उद्धार अति शीघ्र भगवान स्वयं कर देते हैं।
भगवान कहते हैं -
तेषामहं समुद्धर्ता मृत्युसंसारसागरात्।
भवामि नचिरात्पार्थ मय्यावेशितचेतसाम्॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, १२:७)
~हे पार्थ ! जिनका चित्त मुझमें ही स्थिर हुआ है ऐसे भक्तों का मैं शीघ्र ही मृत्युरूप संसार सागर से उद्धार करने वाला होता हूँ॥
ईश्वरभाव और सेवकभाव परस्पर विरुद्ध है। इस कारण प्रमाण द्वारा आत्मा को साक्षात् ईश्वररूप जान लेने के पश्चात् कोई किसी का सेवक नहीं है।
भगवान कहते हैं -
अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च।
निर्ममो निरहङ्कारः समदुःखसुखः क्षमी॥
सन्तुष्टः सततं योगी यतात्मा दृढनिश्चयः।
मय्यर्पितमनोबुद्धिर्यो मद्भक्तः स मे प्रियः॥
(श्रीमद्भगवद्गीता, १२:१३, १४)
~ भूतमात्र के प्रति जो द्वेषरहित है तथा सबका मित्र तथा करुणावान् है; जो ममता और अहंकार से रहित, सुख और दु:ख में सम और क्षमावान् है। जो संयतात्मा, दृढ़निश्चयी योगी सदा सन्तुष्ट है, जो अपने मन और बुद्धि को मुझमें अर्पण किये हुए है, जो ऐसा मेरा भक्त है, वह मुझे प्रिय है।
हम सदा संतुष्ट और समभाव में रहें। अपना संकल्प-विकल्पात्मक मन और निश्चयात्मिका बुद्धि -- भगवान को समर्पित कर दें। भगवान को कभी न भूलें। मन और बुद्धि -- जब भगवान को समर्पित है, समभाव में स्थिति है और पूर्ण संतुष्टि है, -- तब हम भगवान को उपलब्ध हैं।
● शाश्वत संकल्प जो बड़ी दृढ़ता से हर समय हमारे साथ रहे।
-मुझे इसी जीवन में, अभी, इसी समय, -- परमात्मा की प्राप्ति करनी है।
-मुझे पूर्ण श्रद्धा और विश्वास है कि मैं अपने लक्ष्य को प्राप्त करने में सक्षम हूँ।
-भगवान हर समय मुझ में स्वयं को व्यक्त कर रहे हैं। मेरा कोई पृथक अस्तित्व नहीं है। स्वयं परमात्मा मुझमें व्यक्त हैं।
• भगवान की कृपा होना आवश्यक क्यों है?
जीवन में कभी भी विपरीत परिस्थितियाँ और संकट काल अचानक ही आ सकते हैं, जिन में जीवित रहने हेतु भगवान की कृपा होना आवश्यक है। भगवान भी श्रद्धालुओं की ही रक्षा करते हैं, जो उन को अपना मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार समर्पित कर देते हैं। भगवान का भक्त कभी नष्ट नहीं होता --
क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्वच्छान्तिं निगच्छति।
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति॥॥ (श्रीमद्भगवद्गीता,९:३१)
भगवान की कृपा प्राप्त करनी हो, तो किसी अधिकारी आचार्य से सीख कर साधना करनी आवश्यक है।
आने वाले समय में बाढ़, चक्रवात, भूकंप आदि प्राकृतिक आपदायें आ सकती हैं, कोई महामारी फैल सकती है, समुद्र का जलस्तर बढ़ सकता है, विश्वयुद्ध आरंभ हो सकता है। ईश्वर की उपासना तो करनी ही पड़ेगी, आज नहीं तो कल। लेकिन आग लगाने पर कुआँ खोदना कितना उपयोगी होगा, उसकी आप कल्पना कर सकते हैं।
• देने वाला तो कोई और ही है
राजा हरिश्चंद्र एक बहुत बड़े दानवीर थे। उनकी ये एक खास बात थी कि जब वो दान देने के लिए हाथ आगे बढ़ाते तो अपनी नज़रें नीचे झुका लेते थे।
ये बात सभी को अजीब लगती थी कि ये राजा कैसे दानवीर हैं। ये दान भी देते हैं और इन्हें शर्म भी आती है।
राजकवि ने इसका कारण पूछने के लिए चार पंक्तियाँ लिख भेजीं जिसमें लिखा था -
ऐसी देनी देन जु
कित सीखे हो सेन।
ज्यों ज्यों कर ऊँचौ करौ
त्यों त्यों नीचे नैन।।
~ राजा तुम ऐसा दान देना कहाँ से सीखे हो? जैसे जैसे तुम्हारे हाथ ऊपर उठते हैं वैसे वैसे तुम्हारी नज़रें तुम्हारे नैन नीचे क्यूँ झुक जाते हैं?
राजा ने इसके बदले में जो जवाब दिया वो जवाब इतना गजब का था कि जिसने भी सुना वो राजा का कायल हो गया। इतना प्यारा जवाब आज तक शायद ही किसी ने किसी को दिया हो।
राजा ने जवाब में लिखा -
देनहार कोई और है
भेजत जो दिन रैन।
लोग भरम हम पर करैं
तासौं नीचे नैन।।
~ देने वाला तो कोई और है वो मालिक है वो परमात्मा है वो दिन रात भेज रहा है। परन्तु लोग ये समझते हैं कि मैं दे रहा हूँ राजा दे रहा है। ये सोच कर मुझे शर्म आ जाती है और मेरी आँखें नीचे झुक जाती हैं।
• समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो।
(निराशा, विषाद, अश्रद्धा के बीच जीवट अभिव्यक्ति : प्रार्थना)
आत्मश्रद्धा से भर जाऊँ, प्रभुवर ऐसी भक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
कईं जन्मों के कृतकर्म ही, आज उदय में आये है।
कष्टो का कुछ पार नहीं, मुझ पर सारे मंडराए है।
डिगे न मन मेरा समता से, चरणो में अनुरक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
कायिक दर्द भले बढ जाय, किन्तु मुझ में क्षोभ न हो।
रोम रोम पीड़ित हो मेरा, किंचित मन विक्षोभ न हो।
दीन-भाव नहीं आवे मन में, ऐसी शुभ अभिव्यक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
दुरूह वेदना भले सताए, जीवट अपना ना छोडूँ।
जीवन की अन्तिम सांसो तक, अपनी समता ना छोडूँ।
रोने से ना कष्ट मिटे, यह पावन चिंतन शक्ति दो।
समभावों से कष्ट सहूँ बस, मुझ में ऐसी शक्ति दो॥
शिवोहम् शिवोहम् अहम् ब्रह्मास्मि !!
!! ॐ तत्सत् !!
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Akhilesh Pal
दोस्तों, मेरा नाम अखिलेश पाल है एवं मैं AS-Enterprises1 blog का फाउंडर एंड ऑथर हूँ | मैं इस ब्लॉग पर technical topics,law, Education etc. को हिंदी मे समझाने का प्रयास करता हूँ | अगर आपके पास किसी भी प्रकार का कोई suggestion है तो please "Contact Us" Page पर जरुर लिखे | मेरे बारे मे जानने के लिए Visit - About Page |


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